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बाजपेई जी की कविताएं और भाषण पढ़कर उनके दार्शनिक दृष्टिकोण को समझने की एक कोशिश की जा सकती है, जिसको उन्होंने स्वं कभी स्पष्ट नहीं किया पर उनके शब्दों और कर्मों से बीना जा सकता है। वाजपेई जी ने चंद्रिका प्रसाद शर्मा के लिए अपनी जीवनी का विस्तृत नोट लिखा था, जो उनकी भाषणों की किताब को संपादित कर रही थी। कुल मिलाकर पांच ऐसे सिद्धांत हैं जिनको व्यापक रूप से बाजपेई जी का नजरिया कहा जा सकता है।
- पहला, उनका मानना था कि जाति व्यवस्था ने भारतीय समाज को खंडित किया है , जहां सिर्फ क्षत्रियों को ही हथियार उठाने का अधिकार प्राप्त है। उनकी नजर में यह एक कड़वा सच था कि पलासी के युद्ध में देश की रक्षा करने वालों से अधिक ऐसे दर्शकों की संख्या थी जो देश के लिए युद्ध लड़ने की बजाए युद्ध का नतीजा जानने को अधिक उत्सुक थे। जातिगत विभाजन को जाना होगा।
- दूसरा सिद्धांत , आरएसएस में अन्यों की भांति बाजपेई जी भी यही मानते थे कि “ धर्म ” भारत के लिए एक विदेशी संकल्पना है। इस दृष्टिकोण का अग्र रूप यह था कि किसी भी मान्यता से बढ़कर होती है मातृभूमि के प्रति वफादारी। मतलब यह भी था कि अब्राहम की आस्था के अनुयायि , जो मानते हैं कि सत्य पर केवल उनका एकाधिकार है और नागरिक राष्ट्रवाद के ऊपर धार्मिक विचारों को तवाज्जो देते हैं, उन्हें इस पदानुक्रम की प्रणाली को मानना मुश्किल प्रतीत होगा।
- उनके वैश्विक नजरिए की तीसरी मजबूत स्तंभ थी धर्म परिवर्तन को लेकर उनकी जगजाहिर असहजता। उन्होंने एक बार इस चीज का ज़िक्र किया था कि रामायण इंडोनेशिया की जीवंत परंपरा का हिस्सा थी और उनके अनुसार पता नहीं क्यों धार्मिक परिवर्तन के नाम पर सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत को रद्द कर दिया जाता है। नेहरू ने भी एक दफह कहा था कि वह भारत की विरासत पर गर्व करते हैं और “ हमारे पूर्वजों पर भी जिन्होंने हमें बौद्घिक और सांस्कृतिक शान परिपूर्ण किया। ”
- चौथा, बाजपेई जी के दृष्टिकोण की जड़ें भारत की मिट्टी की गहराई तक में थी, और यहां की साहित्यिक परंपराओं को उन्होंने अपना बौद्धिक श्रृंगार बनाया। प्रेमचंद के यथार्थवाद का उन पर गहरा प्रभाव था। प्रेमचंद और अन्य कई लेखकों ने उन्हें अतीत की महिमा याद दिलाई तो दूसरी ओर आगे की चुनौतियों से भी अवगत कराया।
- और आखिर में बाजपेई इस बात से आश्वस्त थे कि अतीत हमें ज़मीन से जोड़े रखने के लिए जरूरी है पर हमें बंदी बनाने के लिए नहीं है। बाजपेई यूनाइटेड स्टेट्स ( यूएस ) से भी नजदीकी बढ़ाने में सफल रहे वो भी उस वक़्त जब उसी की मर्ज़ी के विरूद्ध जाकर उन्होंने न्यूक्लियर परीक्षण भी किए।
वह चीन से रिश्ते सुधारने को भी राजी थे पर उनका मानता था कि भारत और यूएस ही “ स्वाभाविक सहयोगी ” हैं। वे एक प्राकृतिक सुधारक थे तथा लाइसेंस परमिट राज के विरोधी भी , जिसने भारत को बेड़ियों में जकड़ा हुआ था।
Source : Kartik Kaushik
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